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तेरा शहर मुझे रास न आया, समझना चाहा, कुछ ख़ास न आया। परछाईयाँ तो यहाँ भी इंसान सी है मगर, मेरे देस जैसा, एहसास न आया । शाम का नीला आसमाँ तेरा, मेरी ज़मीन से मिलता नहीं है क्यों ? सर्दियों की सहर का गीला धुँआ, मेरी पलकों में घुलता नहीं क्यों ? यहाँ अँधेरा भी मुझसे रूठा सा लगता है। आईना तेरा क्यों मुझे झूठा सा लगता है ? मेरे कदमों की आहट कुछ अजनबी सी लगती है, तेरी गलियों में क्यों तेरी ही कमी सी लगती है ? ये कैसा देस है तेरा, मझें तो रास ना आया, सुना था मेरे देस सा होगा, पर कुछ और ही पाया । कुछ और ही पाया ।।
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